और मैं मुस्कुराती थी हर बार तुम्हें चौंका कर
कभी जब दार्शनिक से बन जाते थे तुम
तो मैं सुना करती थी घन्टों मन्त्रमुग्ध होकर… :)
अब बादलों की तरह उडते हैं ख्यालात रोज़ मेरे कमरे में
याद आती है मेरी? उन्हीं से पूछ्ती हूँ मैं बेचैन होकर
गुज़रे वक्त को छू लूँ किसी तरह ऐसी कोशिशें करती हूँ
जो अब नहीं हैं कहीं… तुम्हारे उन्हीं जादुई शब्दों में खोकर…